"हम एक अहम मोड़ पर पहुंच गए हैं", ये शब्द डॉ. नोरा डीसीस के हैं.
डॉ. नोरा डीसीस एक ऑन्कोलॉजिस्ट हैं और अपने 30 साल के करियर की सबसे बड़ी खोज- ब्रेस्ट कैंसर वैक्सीन के क़रीब हैं.
वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के मेडिसिन कैंसर वैक्सीन इंस्टीट्यूट की प्रमुख डॉ. डीसीस का मानना है कि अगले दशक में वैक्सीन कैंसर के सामान्य इलाज का हिस्सा बन जाएगी.
कई देशों में ब्रेस्ट कैंसर महिलाओं की मौत का सबसे बड़ा कारण है. इंटरनेशनल एजेंसी फ़ॉर रिसर्च ऑन कैंसर (आईएआरसी) के मुताबिक़, दुनिया में हर 20 में से एक महिला ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित होती है.
लेकिन इसके इलाज के लिए उम्मीद ज़िंदा है क्योंकि दुनिया भर में ब्रेस्ट कैंसर वैक्सीन पर 50 से ज़्यादा ट्रायल चल रहे हैं. ब्रेस्ट कैंसर रिसर्च फ़ाउंडेशन के मुताबिक़, इनमें से पांच ट्रायल काफ़ी आगे बढ़ चुके हैं.
पिछले 18 महीनों में वैक्सीन बनाने के क्षेत्र में बड़ी प्रगति हुई है. इसकी वजह इम्यूनोथेरेपी और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में हुआ विकास है.
इम्यूनोथेरेपी इलाज का वह तरीका है, जिसमें बीमारियों से लड़ने के लिए शरीर के इम्यून सिस्टम यानी प्रतिरक्षा प्रणाली की ही मदद ली जाती है. वहीं आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर कैंसर मरीज़ों के हज़ारों डेटा सेट का विश्लेषण किया जा सकता है.
वैक्सीन कितनी असरदार हो सकती है, ये अभिनेत्री विक्टोरिया एकानोये के अनुभव से दिखाया गया. उन्हें 30 की उम्र में डक्टल कार्सिनोमा इन साइटू (डीसीआईएस) का पता चला था. डीसीआईएस ब्रेस्ट की मिल्क डक्ट्स में होने वाला शुरुआती चरण का कैंसर है.
वह कहती हैं, "इसका असर आपके काम, सामाजिक जीवन, परिवार और दोस्तों- सभी पर पड़ता है. यह आपकी ज़िंदगी को पूरी तरह बदल देता है. अगर इसे वैक्सीन से रोका जा सके, तो यह वाक़ई कमाल की बात होगी."
उनका इलाज मुश्किल रहा क्योंकि उन्हें सिकल सेल रोग भी है. इस वजह से सर्जरी के दौरान उन्हें कई बार ख़ून चढ़ाना पड़ा. लेकिन कैंसर का जल्दी पता चलना और समय पर इलाज होना उनके लिए मददगार साबित हुआ.

वैज्ञानिक कई दशकों से कैंसर के इलाज और रोकथाम के लिए वैक्सीन विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अब तक ज़्यादा सफलता नहीं मिली है.
खसरा या मैनिनजाइटिस जैसी बीमारियों की वैक्सीन शरीर को किसी वायरस या बैक्टीरिया से बचाने के लिए उसकी प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) को मज़बूत करती है. लेकिन कैंसर के मामले में यह मुश्किल है, क्योंकि यह शरीर की अपनी ही कोशिकाओं से शुरू होता है. इस वजह से अधिकतर मामलों में मरीज़ों के लिए अलग-अलग वैक्सीन बनानी पड़ती हैं. इन्हें उस मरीज़ के ट्यूमर की विशेष आनुवंशिक बनावट के अनुसार तैयार किया जाता है.
ये वैक्सीन शरीर को ऐसे प्रोटीन या एंटीबॉडी बनाने के लिए प्रेरित करती हैं, जो सिर्फ़ कैंसर कोशिकाओं पर मौजूद विशेष मार्कर या एंटीजन पर हमला करें.
डॉ. नोरी डीसीस की टीम अमेरिका में कैंसर वैक्सीन कोएलिशन (सीवीसी) के साथ मिलकर रिसर्च कर रही है. सीवीसी उन वैक्सीन पर काम तेज़ कर रहा है जो सबसे प्रभावी साबित हो सकती हैं.
डॉ. डीसीस वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी की वोकवेक वैक्सीन की टेस्टिंग बढ़ा रही हैं. यह वैक्सीन ह्यूमन एपिडर्मल ग्रोथ फ़ैक्टर रिसेप्टर 2 (एचईआर 2) प्रोटीन को निशाना बनाती है, जो अक्सर ब्रेस्ट कैंसर कोशिकाओं को तेज़ी से बढ़ने में मदद करता है.
इस ट्रायल में एचईआर 2 पॉज़िटिव ब्रेस्ट कैंसर के मरीज़ों को कीमोथेरेपी और दूसरे इलाज के साथ वैक्सीन दी गई. ये वैक्सीन उनकी ट्यूमर हटाने की सर्जरी से पहले दी गई.
डॉ. डीसीस कहती हैं, "अब हम उस मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहाँ हमें जल्द ही कैंसर वैक्सीन के क्लिनिकल इस्तेमाल की मंज़ूरी मिल सकती है."
इसी बीच अगस्त में ओहायो की क्लीवलैंड क्लिनिक और बायोटेक कंपनी एनीक्सा बायोसाइंसेज़ की ओर से विकसित वैक्सीन का पहला क्लिनिकल ट्रायल पूरा हुआ.
यह वैक्सीन एक पेप्टाइड-आधारित वैक्सीन है, जो अल्फा-लैक्टाल्ब्यूमिन नाम के ब्रेस्ट मिल्क प्रोटीन को निशाना बनाती है. यह प्रोटीन ट्रिपल नेगेटिव ब्रेस्ट कैंसर (टीएनबीसी) से जुड़ा है, जो सबसे घातक रूपों में से एक है.
एनीक्सा बायोसाइंसेज के डॉ. अनिल कुमार बताते हैं, "हम शरीर में एक ऐसा प्रोटीन डाल रहे हैं जो ब्रेस्ट कैंसर कोशिकाओं की पहचान है और शरीर को सिखा रहे हैं कि इन कोशिकाओं पर हमला करे."
वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या यह वैक्सीन ट्यूमर को छोटा कर सकती है, जिससे सर्जरी की ज़रूरत कम या ख़त्म हो जाए और क्या इलाज के बाद ट्यूमर दोबारा लौटने की आशंका घट जाती है.
यह वैक्सीन उन मरीजों पर भी परीक्षण में है जो ट्रिपल नेगेटिव ब्रेस्ट कैंसर (टीएनबीसी) से उबर चुके हैं या जिनकी बायोप्सी में ऐसे बदलाव मिले हैं जो भविष्य में कैंसर का संकेत दे सकते हैं.
शुरुआती नतीजों में पाया गया कि इनमें से 70 प्रतिशत से ज़्यादा महिलाओं के इम्यून सिस्टम ने कैंसर कोशिकाओं की पहचान की और उन पर हमला किया.
क्लीवलैंड क्लिनिक कैंसर इंस्टिट्यूट के डॉ. जी थॉमस बड के मुताबिक़, शुरुआती नतीजों से पता चला कि वैक्सीन 'अच्छी तरह सहन की गई' और इसके साइड इफ़ेक्ट बहुत कम थे.
ट्रायल का दूसरा चरण 2026 की शुरुआत में शुरू होगा, जिसमें एक प्लेसीबो ग्रुप भी होगा. यानी कुछ लोगों को वैक्सीन नहीं दी जाएगी ताकि प्रभाव की तुलना की जा सके.
डॉ. कुमार कहते हैं कि उनका लक्ष्य है, एक दिन यह वैक्सीन उन महिलाओं और कुछ पुरुषों को दी जा सके जिन्हें कैंसर नहीं है ताकि बीमारी को शुरुआत से ही रोका जा सके.
इसके बाद तीसरे चरण के ट्रायल होंगे, जिनमें सैकड़ों से लेकर हज़ारों मरीज़ शामिल होंगे और जिनका उद्देश्य नई वैक्सीन की तुलना मौजूदा सबसे अच्छे इलाज से करना होगा.
इस चरण के बाद भी वैक्सीन को लाइसेंस मिलने में कई साल लग सकते हैं. हालांकि अमेरिकी नियामक संस्था एफ़डीए ने कुछ गंभीर बीमारियों, जिनमें कैंसर भी शामिल है, के लिए मंज़ूरी की प्रक्रिया तेज़ करने के प्रयास किए हैं.
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39 साल की डायना इनिस, जिन्हें ब्रेस्ट कैंसर वैक्सीन दी गई थी, अब तीन साल से कैंसर-मुक्त हैं.
वह कहती हैं, "यह ऐसा है, जैसे लॉटरी जीत ली हो."
उन्होंने दो साल की बेटी को सुलाते समय ब्रेस्ट में एक गांठ महसूस की थी और जांच में स्टेज-3 ट्रिपल नेगेटिव ब्रेस्ट कैंसर निकला.
डायना ने कई महीनों तक मुश्किल इलाज झेला. इनमें बड़ी सर्जरी, रेडियोथेरेपी और 16 दौर की कीमोथेरेपी, जिनमें से तीन 'रेड डेविल' नाम की गंभीर कीमो शामिल थीं.
बाद में उन्हें वैक्सीन ट्रायल में शामिल होने का मौक़ा मिला. शुरू में उन्होंने संकोच किया लेकिन जानकारी मिलने के बाद वह ख़ुद को भाग्यशाली मानती हैं.
वह कहती हैं, "मुझे सच में लगता है कि यह विज्ञान में अगली बड़ी सफलता है."
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हालांकि वैक्सीन को लेकर उम्मीदें बढ़ रही हैं लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि यह प्रक्रिया अभी शुरुआती दौर में है. ये वैक्सीन सटीक इलाज करती हैं, लेकिन इन्हें बनाना बहुत महंगा और जटिल है.
दवा कंपनियों का लक्ष्य ऐसी 'ऑफ-द-शेल्फ़' वैक्सीन विकसित करना है, जो ज़्यादा लोगों पर असर करे और कॉमन ट्यूमर को निशाना बनाए.
ब्रेस्ट कैंसर से जीवित रहने की संभावना दुनिया के अलग-अलग इलाकों में काफ़ी अलग है. अमीर देशों में जहां 83 प्रतिशत महिलाएं बच जाती हैं. वहीं कम आय वाले देशों, ख़ासकर अफ़्रीका के दक्षिणी हिस्से में, आधे से ज़्यादा महिलाओं की मौत हो जाती है.
इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (आईएआरसी) की डॉ. इसाबेल सूरयोमातारम कहती हैं कि कई विशेषज्ञों को डर है कि इस तरह की आधुनिक तकनीक- जैसे वैक्सीन, उन महिलाओं तक नहीं पहुंच पाएगी जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.
वह कहती हैं, "जब बुनियादी इलाज जैसे सर्जरी, रेडियोथेरेपी और कीमोथेरेपी तक लोगों की पहुंच सीमित है, तो इतनी उन्नत वैक्सीन तक पहुंचना और भी कठिन होगा."
आईएआरसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 2050 तक दुनिया में ब्रेस्ट कैंसर के मामले 38 प्रतिशत बढ़ जाएंगे और हर साल इस बीमारी से होने वाली मौतें 68 प्रतिशत तक बढ़ सकती हैं.
रिपोर्ट को तैयार करने वालीं डॉ. जोआन किम कहती हैं, "दुनिया भर में हर मिनट चार महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर होता है और हर मिनट एक महिला की इससे मौत होती है और यह आंकड़े लगातार बिगड़ रहे हैं."
विक्टोरिया एकानोये अब ब्लैक महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर के बारे में जागरूकता बढ़ाने के अभियान चला रही हैं.
वह कहती हैं, "अब भी कई समुदाय ऐसे हैं जहां ब्रेस्ट कैंसर पर बात तक नहीं की जाती. इसके साथ अपराधबोध और शर्म जुड़ी होती है, जिससे ख़ुद की पहचान खोने का अहसास होता है."
डायना मानती हैं कि उनके मन में दोबारा कैंसर लौट आने का डर अब भी बना रहता है, ख़ासकर जब वह पांच साल की रिकवरी के क़रीब पहुंच रही हैं.
वह कहती हैं, "यह कोई साइंस-फ़िक्शन नहीं है. हम फेज़-2 क्लिनिकल ट्रायल के दौर में हैं. मैं आज ज़िंदा हूं और यह इसका जीता-जागता सबूत है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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