अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप अचानक से भारत को लेकर बेहद आक्रामक हो गए हैं। उन्होंने भारत पर 25% टैरिफ लगाने का ऐलान किया है और यह भी चेताया है कि रूस से व्यापार की एवज में कुछ एक्स्ट्रा टैक्स भी लगाया जाएगा। ट्रंप के इस फैसले का क्या असर पड़ सकता है, इस बारे में सरकार आकलन कर रही है। बातचीत के रास्ते खुले हैं और वह होनी भी चाहिए, लेकिन इस मामले में भारत को अपने हितों को भी मजबूती से रखना होगा।
ट्रेड डील: ट्रंप का हालिया बयान केवल टैरिफ या व्यापार घाटे से नहीं जुड़ा। इसके पीछे लंबी हताशा और अपनी इमेज बचाने की चिंता है। कई चरण की बातचीत के बावजूद दोनों देशों की ट्रेड डील किसी अंजाम तक नहीं पहुंच पाई है। रोड़ा अटका हुआ है कृषि और डेयरी सेक्टर पर। हर डील अपनी शर्तों पर करने वाले ट्रंप इन दोनों सेक्टर में अमेरिका के लिए खुली छूट चाहते हैं। ऐसा करना भारतीय किसानों के हित में नहीं होगा और सरकार को इस मामले में बिल्कुल भी नहीं झुकना चाहिए। व्यापार एकतरफा फायदे को देखकर नहीं किया जा सकता।
रूस से व्यापार: अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने भारत के साथ असहमति की जो वजहें गिनाई हैं, उसमें रूस से तेल खरीदना प्रमुख है। हमारे सहयोगी अखबार TOI का मानना है कि 2022 तक भारत की तेल आपूर्ति में रूस का हिस्सा सिर्फ 1% था। आज यह आंकड़ा 35-40% है, और जरूरत पड़ने पर इससे पीछे हटना संभव है, क्योंकि अब रूसी तेल पर पहले जितना फायदा नहीं हो रहा। लेकिन, यहां बात केवल फायदे नहीं, दो देशों के रिश्तों और हक की भी है। भारत की अपनी ऊर्जा जरूरतें हैं। आखिर अमेरिका ने भी तो उस पाकिस्तान के साथ डील की, जो वैश्विक मंचों पर कई बार आतंकवाद की शरणस्थली साबित हो चुका है।
अस्थिर पॉलिसी: ट्रंप न अपने बयानों पर स्थिर रहते हैं और न पॉलिसी पर। जिन देशों ने उनके साथ डील की है, उन्हें भी कोई फायदा नहीं हुआ। ब्रिटेन, वियतनाम से डील के बावजूद टैरिफ बढ़ रहा है। इसी तरह, EU के कई देश नाराज हैं क्योंकि आयात शुल्क औसत 4.8% से बढ़कर अब 15% हो चुका है। यानी किसी भी सूरत में टैरिफ की स्थिति पहले वाली नहीं रहेगी। इसलिए भारत को किसी दबाव में नहीं आना चाहिए।
दोस्त जैसा व्यवहार: रुबियो ने भारत को अमेरिका का सहयोगी और रणनीतिक भागीदार बताया है। उनके देश को चीन का सामना करने के लिए भारत जैसे सहयोगी की दरकार है। लेकिन, उनका बर्ताव एक दोस्त जैसा नहीं है। भारत को अगर कुछ मामलों में अमेरिका की जरूरत है, तो अमेरिका को भी कई जगह भारत का साथ चाहिए।
ट्रेड डील: ट्रंप का हालिया बयान केवल टैरिफ या व्यापार घाटे से नहीं जुड़ा। इसके पीछे लंबी हताशा और अपनी इमेज बचाने की चिंता है। कई चरण की बातचीत के बावजूद दोनों देशों की ट्रेड डील किसी अंजाम तक नहीं पहुंच पाई है। रोड़ा अटका हुआ है कृषि और डेयरी सेक्टर पर। हर डील अपनी शर्तों पर करने वाले ट्रंप इन दोनों सेक्टर में अमेरिका के लिए खुली छूट चाहते हैं। ऐसा करना भारतीय किसानों के हित में नहीं होगा और सरकार को इस मामले में बिल्कुल भी नहीं झुकना चाहिए। व्यापार एकतरफा फायदे को देखकर नहीं किया जा सकता।
रूस से व्यापार: अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने भारत के साथ असहमति की जो वजहें गिनाई हैं, उसमें रूस से तेल खरीदना प्रमुख है। हमारे सहयोगी अखबार TOI का मानना है कि 2022 तक भारत की तेल आपूर्ति में रूस का हिस्सा सिर्फ 1% था। आज यह आंकड़ा 35-40% है, और जरूरत पड़ने पर इससे पीछे हटना संभव है, क्योंकि अब रूसी तेल पर पहले जितना फायदा नहीं हो रहा। लेकिन, यहां बात केवल फायदे नहीं, दो देशों के रिश्तों और हक की भी है। भारत की अपनी ऊर्जा जरूरतें हैं। आखिर अमेरिका ने भी तो उस पाकिस्तान के साथ डील की, जो वैश्विक मंचों पर कई बार आतंकवाद की शरणस्थली साबित हो चुका है।
अस्थिर पॉलिसी: ट्रंप न अपने बयानों पर स्थिर रहते हैं और न पॉलिसी पर। जिन देशों ने उनके साथ डील की है, उन्हें भी कोई फायदा नहीं हुआ। ब्रिटेन, वियतनाम से डील के बावजूद टैरिफ बढ़ रहा है। इसी तरह, EU के कई देश नाराज हैं क्योंकि आयात शुल्क औसत 4.8% से बढ़कर अब 15% हो चुका है। यानी किसी भी सूरत में टैरिफ की स्थिति पहले वाली नहीं रहेगी। इसलिए भारत को किसी दबाव में नहीं आना चाहिए।
दोस्त जैसा व्यवहार: रुबियो ने भारत को अमेरिका का सहयोगी और रणनीतिक भागीदार बताया है। उनके देश को चीन का सामना करने के लिए भारत जैसे सहयोगी की दरकार है। लेकिन, उनका बर्ताव एक दोस्त जैसा नहीं है। भारत को अगर कुछ मामलों में अमेरिका की जरूरत है, तो अमेरिका को भी कई जगह भारत का साथ चाहिए।
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