पटना: बिहार में नक्सली आंदोलन मार्क्स, लेनिन और माओ-त्से तुंग के सिद्धांतों पर अन्याय और शोषण के विरुद्ध शुरू हुआ था। लेकिन, बहुत जल्द ही इस पर जातीय रंग चढ़ गया। 1990 के विधानसभा चुनाव में नक्सली झुकाव वाली पार्टी, आईपीएफ ने 82 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें से 7 पर जीत मिली थी। इल दल में अनुशासन और सिद्धांत ही सर्वोपरी था। जातिवाद के लिए कोई जगह नहीं थी। लेकिन, 1990 में लालू यादव के सत्ता में आने और कुछ समय बाद मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की सियासी फिजां बिल्कुल बदल गयी। जातिवाद की ऐसी आंधी बही कि सिद्धांत और विचारवाद तिनके की तरह उड़ गये। पिछड़ेवाद की लहर में साम्यवाद बेमानी हो गया। 1991 में लालू यादव ने जातीय आधार पर आईपीएफ के चार विधायकों को तोड़ कर जनता दल में मिला लिया। इन विधायकों में श्रीभगवान सिंह, केडी यादव, उमेश सिंह प्रमुख थे। उस समय लालू यादव अल्पमत की सरकार चला रहे थे। बहुमत के लिए उन्हें और विधायकों की जरूरत थी। इसलिए दलों में तोड़-फोड़ कर रहे थे। ये विडंबना की बात है कि आईपीएफ का दूसरा रूप भाकपा माले आज लालू यादव की सरपरस्ती में अपना भविष्य खोज रहा है। वह खुश है कि लालू यादव के सहयोग से वह एक सांसद और 12 विधायकों वाली पार्टी बन गई है।
लालू यादव ने कैसे कमजोर किया IPF को?
लालू यादव आईपीएफ को जातीय आधार पर कमजोर करने के लिए तब मुहावरा कहा करते थे, उधर (कांग्रेस) भी मिश्राजी हैं, इधर (आईपीएफ) भी मिश्राजी हैं, अब सोच लीजिए किधर जाइएगा। उस समय जग्नानथ मिश्र विधानसभा में विरोधी दल के नेता थे और विनोद मिश्र आईपीएफ के महासचिव थे। लालू यादव के कहने का मतलब था कि पिछड़े और गरीब लोग यहां-वहां न जाकर उनके साथ रहें। अब ऐसे में भला कौन विचारवाद की सोचता। चूंकि लालू यादव का आधार मत वही था, जो आईपीएफ का था, इसलिए दोनों में हितों का संघर्ष शुरू हो गया। आईपीएफ गरीबों, वंचितों और मजदूरों के वोट पर अपना अधिकार समझता था, जो अब पूरी तरह लालू यादव के पक्ष में चला गया था। बाद में लालू यादव जितने मजबूत होते गये, नक्सली संगठन और वामपंथी दल उतने ही कमजोर।
लालू यादव के खिलाफ IPF का विरोध प्रदर्शन
इंडियन पीपुल्स फ्रंट (IPF) अपना आधार छीन जाने से परेशान था। उसने लालू यादव पर कुशासन का आरोप लगा कर विरोध शुरू कर दिया। सितम्बर-अक्टूबर 1993 में इसकी छात्र ईकाई आइसा और बिहार किसान सभा ने अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ लालू यादव के घेराव आयोजन किया। इस पर पुलिस ने बल प्रयोग किया, जिसकी वजह से जवाबी हिंसा भड़क गयी थी। आईपीएफ में लालू यादव की सेंधमारी से बहुत नाराजगी थी। तब आईपीएफ के नेता ने कहा था- लालू यादव का सामाजिक न्याय का कार्यक्रम गरीबों को धोखा देने और बिहार को लूटने का एक चालाक तरीका है। छात्रों और किसानों पर पुलिस का जुल्म लालू के अंत की शुरुआत है।
अक्टूबर 1990 में आईपीएफ ने ‘दाम बांधो, काम दो’ के नारे के साथ पटना के गांधी मैदान में विशाल रैली की थी। इस रैली से लालू यादव को धुरवामपंथ की तकत दिखायी गयी थी। 1994 में इंडियन पीपुल्स फ्रंट को भंग कर इसकी जगह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी (भाकपा माले) खड़ा किया गया। भाकपा माले को उस समय लालू यादव से इतना विरोध था कि उसने 1995 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की समता पार्टी से गठबंधन कर लिया था।
1985 के चुनाव में नहीं खुला था खाता
बिहार में नक्सली आंदोलन 1969 में भोजपुर जिले से शुरू हुआ था। विचारवाद के आधार पर वे चुनाव का विरोध करते थे। वे हिंसक क्रांति से सामाजिक- राजनीतिक बदलाव लाना चाहते थे। नक्सली नेता भूमिगत रह कर आंदोलन का संचालन कर रहे थे। लेकिन, वक्त बदला तो वे चुनाव के जरिये राजनीतिक परिवर्तन के हिमायती हो गये। भाकपा माले लिबरेशन ने 1982 में एक खुले जनमंच के रूप में इंडियन पीपुल्स फ्रंट का गठन किया। नक्सली आईपीएफ के बैनर चले चुनाव लड़ने लगे।
1985 के विधानसभा चुनाव में उसने पहली बार किस्मत आजमायी । 49 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन कहीं सफलता नहीं मिली। 1990 में पहली बार इसे जीत मिली। आज भाकपा माले लालू यादव की समर्थक है और तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए राजनीति कर रही है। लेकिन यह किसी दल के शीर्षासन करने के बराबर है।
जून 1997 में जब राज्यपाल ने मुख्यमंत्री लालू यादव के खिलाफ चारा घोटला में मुकदमा चलाने की मंजूरी दे दी थी तब वे इस्तीफा नहीं देने पर अड़े हुए थे। उस समय भाकापा माले के महासचिव विनोद मिश्र ने कहा था, अगर लालू यादव 10 दिनों के अंदर इस्तीफा नहीं देते हैं तो राज्य सरकारी की पूरी मशीनरी ठप कर दी जाएगी। आज भाकपा माले कहां से कहां आ गयी। कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी वर्ना कोई यूं ही बेवफा नहीं होता।
लालू यादव ने कैसे कमजोर किया IPF को?
लालू यादव आईपीएफ को जातीय आधार पर कमजोर करने के लिए तब मुहावरा कहा करते थे, उधर (कांग्रेस) भी मिश्राजी हैं, इधर (आईपीएफ) भी मिश्राजी हैं, अब सोच लीजिए किधर जाइएगा। उस समय जग्नानथ मिश्र विधानसभा में विरोधी दल के नेता थे और विनोद मिश्र आईपीएफ के महासचिव थे। लालू यादव के कहने का मतलब था कि पिछड़े और गरीब लोग यहां-वहां न जाकर उनके साथ रहें। अब ऐसे में भला कौन विचारवाद की सोचता। चूंकि लालू यादव का आधार मत वही था, जो आईपीएफ का था, इसलिए दोनों में हितों का संघर्ष शुरू हो गया। आईपीएफ गरीबों, वंचितों और मजदूरों के वोट पर अपना अधिकार समझता था, जो अब पूरी तरह लालू यादव के पक्ष में चला गया था। बाद में लालू यादव जितने मजबूत होते गये, नक्सली संगठन और वामपंथी दल उतने ही कमजोर।
लालू यादव के खिलाफ IPF का विरोध प्रदर्शन
इंडियन पीपुल्स फ्रंट (IPF) अपना आधार छीन जाने से परेशान था। उसने लालू यादव पर कुशासन का आरोप लगा कर विरोध शुरू कर दिया। सितम्बर-अक्टूबर 1993 में इसकी छात्र ईकाई आइसा और बिहार किसान सभा ने अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ लालू यादव के घेराव आयोजन किया। इस पर पुलिस ने बल प्रयोग किया, जिसकी वजह से जवाबी हिंसा भड़क गयी थी। आईपीएफ में लालू यादव की सेंधमारी से बहुत नाराजगी थी। तब आईपीएफ के नेता ने कहा था- लालू यादव का सामाजिक न्याय का कार्यक्रम गरीबों को धोखा देने और बिहार को लूटने का एक चालाक तरीका है। छात्रों और किसानों पर पुलिस का जुल्म लालू के अंत की शुरुआत है।
अक्टूबर 1990 में आईपीएफ ने ‘दाम बांधो, काम दो’ के नारे के साथ पटना के गांधी मैदान में विशाल रैली की थी। इस रैली से लालू यादव को धुरवामपंथ की तकत दिखायी गयी थी। 1994 में इंडियन पीपुल्स फ्रंट को भंग कर इसकी जगह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी (भाकपा माले) खड़ा किया गया। भाकपा माले को उस समय लालू यादव से इतना विरोध था कि उसने 1995 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की समता पार्टी से गठबंधन कर लिया था।
1985 के चुनाव में नहीं खुला था खाता
बिहार में नक्सली आंदोलन 1969 में भोजपुर जिले से शुरू हुआ था। विचारवाद के आधार पर वे चुनाव का विरोध करते थे। वे हिंसक क्रांति से सामाजिक- राजनीतिक बदलाव लाना चाहते थे। नक्सली नेता भूमिगत रह कर आंदोलन का संचालन कर रहे थे। लेकिन, वक्त बदला तो वे चुनाव के जरिये राजनीतिक परिवर्तन के हिमायती हो गये। भाकपा माले लिबरेशन ने 1982 में एक खुले जनमंच के रूप में इंडियन पीपुल्स फ्रंट का गठन किया। नक्सली आईपीएफ के बैनर चले चुनाव लड़ने लगे।
1985 के विधानसभा चुनाव में उसने पहली बार किस्मत आजमायी । 49 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन कहीं सफलता नहीं मिली। 1990 में पहली बार इसे जीत मिली। आज भाकपा माले लालू यादव की समर्थक है और तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए राजनीति कर रही है। लेकिन यह किसी दल के शीर्षासन करने के बराबर है।
जून 1997 में जब राज्यपाल ने मुख्यमंत्री लालू यादव के खिलाफ चारा घोटला में मुकदमा चलाने की मंजूरी दे दी थी तब वे इस्तीफा नहीं देने पर अड़े हुए थे। उस समय भाकापा माले के महासचिव विनोद मिश्र ने कहा था, अगर लालू यादव 10 दिनों के अंदर इस्तीफा नहीं देते हैं तो राज्य सरकारी की पूरी मशीनरी ठप कर दी जाएगी। आज भाकपा माले कहां से कहां आ गयी। कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी वर्ना कोई यूं ही बेवफा नहीं होता।
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