विशाल वर्मा, जालौन: कल्पना कीजिए, आपका किचन माइक्रोवेव जो रोजाना खाना गर्म करने का काम करता है, वही अब कृत्रिम हड्डियां और दांत बना सकता है! जी हां, यह कोई विज्ञान फैंटेसी नहीं, बल्कि भारतीय शोधकर्ता डॉ. शिवानी गुप्ता की अगुआई में किया गया एक अभूतपूर्व वैज्ञानिक प्रयोग है। डॉ. शिवानी गुप्ता ने अपने शोध के जरिए साबित किया है कि माइक्रोवेव तकनीक का उपयोग कर कृत्रिम दांत, हड्डियों के इम्प्लांट और अन्य बायोमेडिकल उपकरण बनाए जा सकते हैं। यह शोध मेडिकल क्षेत्र के लिए एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। कैसे शुरू हुआ यह सफर?डॉ. शिवानी गुप्ता अभी एमआईटी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी, पुणे में सहायक प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत हैं। वह जालौन की रहने वाली हैं। उन्होंने IIT रुड़की से प्रोफेसर अपूर्व कुमार शर्मा के मार्गदर्शन में पीएचडी की उपाधि हासिल की। उनके शोध का मुख्य उद्देश्य था कि कैसे किचन माइक्रोवेव का इस्तेमाल बायोमेडिकल इम्प्लांट बनाने में किया जा सकता है? पीएचडी रिसर्च के दौरान शोध को कागजों से वास्तविक जीवन में उतारने का आइडिया आया। इस आधार पर उन्होंने काम शुरू किया। उनका दावा है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के मरीजों को बेहतर मेडिकल फैसिलिटी देने में यह इनोवेशन काफी कारगर साबित होगा। अंडे के छिलके से बने इम्प्लांटडॉ. शिवानी गुप्ता ने अपने शोध में अंडे के छिलके को आधार बनाया, क्योंकि यह कैल्शियम और मैग्नीशियम का पर्याप्त स्रोत है। ये वही तत्व हैं जो हमारी हड्डियों की मजबूती के लिए जरूरी होते हैं। उन्होंने बताया कि अंडे के छिलके को पाउडर के रूप में प्रोसेस किया गया। इस पाउडर को हाइड्रोलिक प्रेस की मदद से इम्प्लांट के आकार में ढाला गया।डॉ. गुप्ता ने कहा कि इसके बाद इसे माइक्रोवेव ओवन में गर्म किया गया। ठीक उसी प्रकार से जैसे खाना पकाया जाता है। इस प्रक्रिया से बने इम्प्लांट्स शरीर में घुलनशील हैं, यानी इन्हें बाद में निकालने के लिए दोबारा सर्जरी की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्यों है यह तकनीक खास?आजकल टूटी हड्डियों को जोड़ने के लिए धातु की प्लेटें या रॉड लगाई जाती हैं, जिन्हें बाद में निकालने के लिए दोबारा ऑपरेशन करना पड़ता है। लेकिन इस नई तकनीक से बने इम्प्लांट्स समय के साथ शरीर में घुल जाते हैं और प्राकृतिक रूप से बाहर निकल जाते हैं। माइक्रोवेव तकनीक से इम्प्लांट बनाना पारंपरिक तरीकों की तुलना में कम खर्चीला है, जिससे आम लोगों को सस्ता इलाज मिल सकेगा। अंडे के छिलके जैसे बायो-वेस्ट का उपयोग करने से यह तकनीक इको-फ्रेंडली भी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिली पहचानइस शोध के लिए डॉ. शिवानी गुप्ता को पेंसिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी, यूएसए में अंतरराष्ट्रीय रिसर्च फेलोशिप भी मिली है। उनका कहना है कि यह तकनीक भारत जैसे देश के लिए विशेष रूप से उपयोगी हो सकती है, जहां सस्ते और टिकाऊ मेडिकल संसाधनों की बेहद जरूरत है।
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