–उच्च न्यायालय ने आदेश लिखे जाने के बाद बहस करने वाले वकीलों की निंदा की
प्रयागराज, 26 अगस्त (Udaipur Kiran) । इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दूसरी जमानत अर्जी खारिज करते हुए कहा कि अधिवक्ताओं की अदालत के प्रति दोहरी जिम्मेदारी होती है। एक अपने मुवक्किल के प्रति और दूसरी न्यायालय के प्रति। जहां उन्हें कार्यवाही में व्यवधान उत्पन्न करने के बजाय सम्मानपूर्वक न्यायालय की सहायता करनी चाहिए।
हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी तब की जब आरोपी जमानत आवेदक के वकील ने अदालत द्वारा जमानत खारिज किए जाने के बाद भी बहस जारी रखी। 28 मई 2025 को पहली जमानत अर्जी खारिज हो गई थी। मामला धारा 74, 64 (1) बीएनएस थाना मझिगवां, जिला, हमीरपुर का है।
न्यायमूर्ति कृष्ण पहल ने कहा, “न्याय, न्यायालय में अधिवक्ताओं की दोहरी ज़िम्मेदारियों को रेखांकित करता है। जहां उन्हें अपने मुवक्किलों का निष्ठापूर्वक प्रतिनिधित्व और उनके हितों की रक्षा करनी चाहिए। वहीं न्यायालय में एक सम्मानजनक और अनुकूल वातावरण बनाए रखना भी उनका एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है। अधिवक्ताओं को व्यवधान उत्पन्न करने के बजाय न्यायालय की सहायता करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कार्यवाही व्यवस्थित और सम्मानजनक हो, जिससे अंततः न्यायिक प्रक्रिया की गरिमा बनी रहे।“
आवेदक नरेंद्र सिंह ने दूसरी बार ज़मानत के लिए उच्च न्यायालय का रुख किया था। चूंकि पहली ज़मानत खारिज हो गई थी और ज़मानत देने का कोई नया आधार नहीं दिखाया गया था, इसलिए अदालत ने आवेदन खारिज कर दिया।
अस्वीकृति के बावजूद, ज़मानत आवेदक के वकील ने मामले पर बहस जारी रखी। अधिवक्ताओं के आचरण की निंदा करते हुए न्यायालय ने कहा,“ आवेदक के वकील ने खुली अदालत में आदेश पारित होने के बाद भी न केवल मामले पर बहस जारी रखी, बल्कि कार्यवाही में व्यवधान भी डाला। इस व्यवहार को न्यायालय की आपराधिक अवमानना माना जाता है, क्योंकि यह न्यायिक प्रक्रिया के अधिकार और मर्यादा को कमज़ोर करता है, लेकिन यह न्यायालय अवमानना कार्यवाही शुरू करने से परहेज़ कर रहा है। आदेश पारित होने के बाद किसी भी वादी को न्यायालय की कार्यवाही में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।“
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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे
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